उलझते रहते हैं जाने क्यों बार-बार मुझ से यहाँ पे कुछ लोग हैं जो जलते हैं यार मुझ से मैं एक दिन खुल के बोल बैठा था आख़िरत पर बिगड़ गए उस के बाद सब दुनिया-दार मुझ से अजीब दुख है मैं आज उस में खटक रहा हूँ जो आँख देखी नहीं गई अश्क-बार मुझ से पलट के आ जा कि बात बस में नहीं रही अब सँभल नहीं पा रहा दिल-ए-बे-क़रार मुझ से ये सब तुफ़ैल-ए-ग़म-ए-शब-ए-हिज्र है मिरी जाँ जो शेर होने लगा है अब शानदार मुझ से हुआ कुछ ऐसे कि मैं बुढ़ापे को आन पहुँचा फिर इस से आगे हुआ नहीं इंतिज़ार मुझ से किसी की बातों में आ गया है वो शख़्स 'मेहदी' वगर्ना चाहत तो थी उसे बे-शुमार मुझ से