उल्फ़त की अगर रूदाद सुनो तो मेरा फ़साना काफ़ी है हाँ ज़िक्र-ए-जफ़ा-ए-दोस्त नहीं बेदाद-ए-ज़माना काफ़ी है हम से था इबारत ख़ंदा-ए-गुल हर बात पे आ जाती थी हँसी अब अज़्मत-ए-गिर्या हम से है रोने को बहाना काफ़ी है इस दौर-ए-जुनूँ में अपना पता हम इस के सिवा क्या समझाएँ इक नक़्श-ए-क़दम सज्दों के निशाँ बस इतना ठिकाना काफ़ी है पहुँचा कि नहीं उस तक कोई इस की तो कोई तहक़ीक़ नहीं हम सू-ए-हरीम-ए-दोस्त अगर हो जाएँ रवाना काफ़ी है दुनिया को भला हम क्या देंगे ख़ुद दस्त-निगर हैं हम उन के कुछ उन पे तसद्दुक़ करना हो तो ग़म का ख़ज़ाना काफ़ी है बस हम तो मोहब्बत करते हैं हम हम्द-ओ-सना को क्या समझें सुनते हैं रिझाने को उन के उल्फ़त का तराना काफ़ी है बेगाना हुआ हर शख़्स यहाँ हम जिस को 'शिफ़ा' अपना समझे अब उस का दामन थाम लिया बस वो ही यगाना काफ़ी है