सितम की आरज़ू ऐ बद-गुमाँ बाक़ी न रह जाए कोई अहल-ए-वफ़ा का इम्तिहाँ बाक़ी न रह जाए ब-तर्ज़-ए-नौ सुनाया बारहा अफ़्साना-ए-हस्ती कि ग़म का कोई अंदाज़-ए-बयाँ बाक़ी न रह जाए जहाँ तक हो सके तुझ से हर इक लय में पुकार उन को दिल-ए-महज़ूँ कोई तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ बाक़ी न रह जाए हर इक मंसूर का दार-ओ-रसन से सामना होगा ग़रज़ ये है कि कोई राज़दाँ बाक़ी न रह जाए न हो अंजाम मेरा जो हुआ फ़र्हाद-ओ-मजनूँ का मिटाओ इस तरह नाम-ओ-निशाँ बाक़ी न रह जाए मशिय्यत भी मुझे तस्लीम है तक़दीर भी लेकिन कोई तदबीर अहल-ए-कारवाँ बाक़ी न रह जाए कभी ग़ैरों ने परखा था अब अपने आज़माते हैं मिरी हिम्मत का कोई इम्तिहाँ बाक़ी न रह जाए तअज्जुब तो ये है अब बाग़बाँ ने दिल में ठानी है चमन में कोई शाख़-ए-आशियाँ बाक़ी न रह जाए 'शिफ़ा' ईसार में पाबंदी-ए-दैर-ओ-हरम कैसी मिरे सज्दों में क़ैद-ए-आस्ताँ बाक़ी न रह जाए