उलझा न मिरे आज का दामन कभी कल से माँगी न मिरे दिल ने मदद तूल-ए-‘अमल से उन की निगह-ए-मस्त है लबरेज़-ए-म'आनी मिलती हुई तासीर में 'हाफ़िज़' की ग़ज़ल से इदराक ने आँखें शब-ए-औहाम में खोलीं वाक़िफ़ न हुआ रौशनी-ए-सुब्ह-ए-अज़ल से दर्जा मुतहय्यर का है बे-ख़ुद से फ़िरोतर है रूह को उम्मीद तरक़्क़ी की अजल से बहस-ए-कुहन-ओ-नौ मैं समझता नहीं 'अकबर' जो ज़र्रा है मौजूद है वो रोज़-ए-अज़ल से