उलझा रहता हूँ अक्सर अंदेशों में नाम लिखा है मेरा भी दरवेशों में घर जा कर भी आख़िर क्या मिलना है मुझे क्यों उलझूँ उल्टे सीधे उपदेशों में पत्थर अब भी झुक के सलामी देते हैं धार नहीं बाक़ी है यारो तेशों में वक़्त ने आख़िर बुज़दिल कहला ही डाला हम भी गिने जाते थे कभी नरेशों में घर के लोग दुआएँ करते रहते हैं मैं फिरता रहता हूँ देश-विदेशों में साया पीपल सा है दम लेने को 'वक़ार' महक निराली सी है घनेरे केशों में