उलझन में हस्त-ओ-बूद की यूँ मुब्तला हूँ मैं ख़ुद अपना अक्स हूँ कि तिरा आइना हूँ मैं मुझ को किया है लाइक़-ए-सज्दा इसी लिए अज्ज़ा-ए-काएनात में सब से जुदा हूँ मैं तू एक है मगर हैं तिरे अन-गिनत मजाज़ हर आइने में तेरे नुमायाँ हुआ हूँ मैं तिश्ना-लबी में ज़ब्त हो और वो भी उस घड़ी जब इत्तिफ़ाक़ से लब-ए-दरिया खड़ा हूँ मैं मानिंद-ए-कहकशाँ ये मिटाती है तीरगी पढ़ कर किताब-ए-इश्क़ को रौशन हुआ हूँ मैं आसूदगी को छोड़ वो हासिल रही मुझे लेकिन मोहब्बतों को तरसता रहा हूँ मैं दरिया सिफ़त भी हो के न सैराब कर सका बरसे बिना जो छट गई ऐसी घटा हूँ मैं दस्त-ए-जफ़ा से जिस के ये वहशत मुझे मिली उस को भी है गिला कि दरिंदा-नुमा हूँ मैं तन्हाई में इक आलम-ए-इम्काँ बसा लिया 'आदिल' यूँ अपने आप में कुछ ढूँढता हूँ मैं