उलझी थी ज़ुल्फ़ उस ने सँवारा सँवर गई शाने को क्या ख़बर ये बला किस के सर गई आईने भी बनाए तो देखा न अपना मुँह अब तक न ख़द्द-ओ-ख़ाल पे अपने नज़र गई यूँ तो रवाक़-ए-दौलत-ओ-दीं भी थे साया-दार लेकिन थकन ग़रीब की सू-ए-शजर गई अहल-ए-नज़र न मुझ पे हँसें मेरी ये नज़र कुछ तो बरून-ए-हल्क़ा-ए-हद्द-ए-नज़र गई रस्ते में क्या धरा था कि रुकती कहीं निगाह देखा तुम्हें तो उम्र-ए-गुरेज़ाँ ठहर गई ऊँची हुई फ़ुग़ाँ तो गई आसमाँ के पार उतरा जो अर्श से तो दिलों में उतर गई मंज़िल तो अपनी हद्द-ए-नज़र ही पे थी 'जमील' पहुँचे वहाँ तो और कुछ आगे नज़र गई