उमीद-ओ-यास में शब जल रही है महज़ इक साँस है जो चल रही है मैं आईना खुरच कर ढूँढता था अजब बे-चेहरगी सी कल रही है जिसे तुम आलिमा बतला रहे हो ये अपने हाल में पागल रही है शफ़क़ की ज़ुल्फ़ बिखरी आसमाँ पर वो रश्क-ए-जाम आँखें मल रही है मुझे आज़ाद कर दे तू दुआ से मुझे ये दीन-दारी खल रही है है वीराना बपा दिल-अंजुमन में जहाँ तेरी ग़रज़ अव्वल रही है