उम्मीद-ए-सुब्ह ख़याल-ए-बहार क्या क्या कुछ गँवा के बैठे हैं हम जाँ-फ़िगार क्या क्या कुछ जुनूँ-क़िमाश थी अपनी ख़िरद की दुनिया भी सो बज़्म बज़्म समेटा ग़ुबार क्या क्या कुछ वफ़ा ख़ुलूस मुरव्वत सिपास दिलदारी हुए हैं हम से गुनाह-ए-किबार क्या क्या कुछ तुम्हें सरिश्त-ए-अलम से रहा इलाक़ा कब ये हम ही थे कि हुए ज़ेर-ए-बार क्या क्या कुछ ये मरहला भी अजब है कि बे-सबाती-ए-दिल दिखा रही है सर-ए-ख़्वाब-ज़ार क्या क्या कुछ सुकूत-ए-शब में फ़क़त इंतिज़ार था तेरा उगा जो दिन तो उगे इंतिज़ार क्या क्या कुछ मसील-ए-बर्ग-ए-हिना थी लहू की नैरंगी कि लख़्त लख़्त उभारे निगार क्या क्या कुछ शिकस्त-ओ-फ़त्ह हयात-ओ-ममात सूद-ओ-ज़ियाँ ये एक मैं है मिरा इंतिशार क्या क्या कुछ ज़बान रंग इलाक़ा क़बील जिंस नसब हर इक है ओढ़े हुए इश्तिहार क्या क्या कुछ उठे जो शैख़-ओ-बरहमन ब-नाम-ए-दैर-ओ-हरम नफ़स नफ़स में उठे कार-ज़ार क्या क्या कुछ ख़ुदा-परस्ती कहो चाहे ख़ुद-परस्ती कहो हैं फ़ी-ज़माना यही कारोबार क्या क्या कुछ फ़रेब मक्र रिया ख़ुद-नुमाई ख़ुद-ग़र्ज़ी ये उजले चेहरे मगर दाग़-दार क्या क्या कुछ दुआ बहार की भूले से माँग बैठे थे सो शाख़ शाख़ खिले हैं शरार क्या क्या कुछ