उम्मीद के उफ़ुक़ से न उट्ठा ग़ुबार तक देखी अगरचे राह-ए-ख़िज़ाँ से बहार तक रखने को तेरे वादा-ए-ना-मो'तबर की लाज झेली है दिल ने ज़हमत-ए-सब्र-ओ-क़रार तक देखा है किस ने मुँह सहर-ए-जल्वा-साज़ का सब वलवले हैं एक शब-ए-इंतिज़ार तक सय्याद के सितम से रिहाई का ज़िक्र क्या सौ दाम थे क़फ़स से सर-ए-शाख़-सार तक मातम ये है कि ज़ौक़-ए-फ़ुग़ाँ भी नहीं नसीब बे-सोज़ हो गया नफ़स-ए-शोला-कार तक जाती है दिल की हसरत-ए-नज़्ज़ारगी कहाँ नज़्ज़ारा हो गया है निगाहों पे बार तक क्या उस की शान-ए-बंदा-नवाज़ी का पूछना बख़्शा है मुफ़लिसों को ग़म-ए-शाह-वार तक फिर उस के बाद दिल में न उतरी कोई निगाह वो तेज़ियाँ रहीं तिरे ख़ंजर की धार तक 'हक़्क़ी' से सरगिराँ ही सही नुक्ता-दान-ए-शेर इक रंग है कि है कुछ इसी जान-ए-हार तक