उम्र-भर इश्क़ के आज़ार ने सोने न दिया हाए हाए दिल-ए-बीमार ने सोने न दिया ख़्वाब में शक्ल दिखाता वो मुक़र्रर मुझ को शौक़ के ताला'-ए-बेदार ने सोने न दिया ऐश की शब भी मिरे बख़्त को आ जाती नींद उस की पाज़ेब की झंकार ने सोने न दिया मेरे मरक़द पे कहा किस ने क़यामत है क़रीब याद आ कर तिरी रफ़्तार ने सोने न दिया रत-जगे होते रहे हैं कि बढ़े ग़म की उम्र एक शब दर्द-ए-दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया मैं ने सोने न दिया शाम से उस को शब-ए-वस्ल सुब्ह तक ज़िद से मुझे यार ने सोने न दिया नीश-ए-ग़म ने रग-ए-मिज़्गाँ से निकाला ये लहू मुझ को रातों मिरे ग़म-ख़्वार ने सोने न दिया मय-कशो सुर्ख़ हैं आँखें जो तुम्हारी शायद शब तुम्हें साक़ी-ए-सरशार ने सोने न दिया ख़ौफ़ था उस को 'शहीदी' तिरी बद-मस्ती का शब जो हम-बज़्मों को अय्यार ने सोने न दिया