उम्र-ए-फ़ानी को हयात-ए-जाविदाँ समझा था मैं थी ख़िज़ाँ जिस को बहार-ए-गुलिस्ताँ समझा था मैं दाम हम-रंग-ए-ज़मीं है और वही सय्याद भी अपनी आहों को हरीफ़-ए-आसमाँ समझा था मैं किस तरह अब कर सके कोई किसी पर ए'तिमाद राहज़न थे जिन को मीर-ए-कारवाँ समझा था मैं ख़ार ग़ुंचे बन गए और फूल अंगारे बने तेरी दुनिया को तो या-रब गुल्सिताँ समझा था मैं ख़ाना-ए-दिल में न उन से हो सकी कुछ रौशनी दाग़-हा-ए-दिल को अपने कहकशाँ समझा था मैं दस्त-ओ-पा ने दी शहादत हश्र में मेरे ख़िलाफ़ ज़िंदगी के साथियों को बे-ज़बाँ समझा था मैं अब तिरी मर्ज़ी हो जैसी बख़्श दे या दे सज़ा तेरी रहमत को इलाही बे-कराँ समझा था मैं आज उस को ले गई बाद-ए-सबा महबूब तक ख़ाक वो मेरी कि जिस को राएगाँ समझा था मैं आलम-ए-ग़ुर्बत है मैं हूँ और नहीं कोई 'ज़की' है हक़ीक़त अब जिसे वहम-ओ-गुमाँ समझा था मैं