उम्र-ए-रफ़्ता में यूँ तो क्या न हुआ सिर्फ़ इक तू है जो मिरा न हुआ जान हम ने निकाल कर रख दी फिर भी इज़हार-ए-मुद्दआ न हुआ आज तरही निशस्त थी लेकिन वो न आए मुक़ाबला न हुआ फूल झड़ते हैं लब जो हिलते हैं गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ मुंतज़िर हूँ मैं कितनी मुद्दत से तेरा वा'दा कभी वफ़ा न हुआ तू ही ऐ दोस्त इक मेरा न हुआ ज़ेर-ए-अफ़्लाक वर्ना क्या न हुआ कोई पहूँचा नहीं है साहिल पर ना-ख़ुदाई का फिर गिला न हुआ काट दी मय-कदे में उम्र-ए-दराज़ रिंद था 'शाद' पारसा न हुआ