तू कभी माइल-ए-वफ़ा न हुआ फिर भी तुझ से मुझे गिला न हुआ एक मौज-ए-नशात थी हस्ती ग़म रहा हद में पर सिवा न हुआ इश्क़ था एक सानेहा दिल का लब पे आया तो ये फ़साना हुआ रस टपकता था उन लबों से मैं गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ तिश्ना-कामों की प्यास बुझ जाती तुझ से इतना भी साक़िया न हुआ ज़िंदगी इंतिज़ार में गुज़री वा'दा उन का कोई वफ़ा न हुआ 'शाद' ढूँडे हज़ार पैराए फिर भी इज़हार-ए-मुद्दआ न हुआ