उम्र गुज़री इन बुतों के वस्ल की तदबीर में क्या ख़बर मुझ को ये पत्थर थे मिरी तक़दीर में पाक कर के इस को ला क़ातिल लहू खाता है जोश ग़ैर के ख़ूँ के हैं धब्बे दामन-ए-शमशीर में बलकी लेता है मुक़द्दर मुझ से क्यों हर मर्तबा बल है उन की ज़ुल्फ़ का क्या गेसू-ए-तक़दीर में हिज्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार में इस दर्जा हूँ ज़ार-ओ-नहीफ़ है फ़राग़त से गुज़र अब ख़ाना-ए-ज़ंजीर में आज तक ख़ारिश नहीं ज़ख़्म-ए-जिगर की कम हुई किस क़यामत का मज़ा था नाख़ुन-ए-शमशीर में किस तरह बे-क़त्ल के आए मुझे आराम-ओ-चैन शक्ल मक़्सद की तो है आईना-ए-शमशीर में क़ल्ब में पैवस्त पैकाँ भी इसी सूरत से हो जैसे बैठी है सिरी ऐ तुर्क तेरे तीर में जिन के दिल फ़ौलाद हैं ग़म का असर उन पे हो क्या अश्क कब देखे किसी ने दीदा-ए-ज़ंजीर में इस ज़ईफ़ी में ख़ता करता नहीं तीर-ए-सितम हैं अभी कस-बल जवानों के से चर्ख़-ए-पीर में वाक़ई दिल की ख़ता है आशिक़-ए-मिज़्गाँ हुआ इस को कुछ तंबीह कर दीजे ज़बान-ए-तीर में मेहर-ओ-उल्फ़त का महल उस बुत के रहने का मक़ाम मंज़िल-ए-दिल भी है क्या मंज़िल मिरी ता'मीर में अश्क-ए-ख़ूँ नाशादी-ए-उश्शाक़ पर रोई है ये ख़ून के धब्बे नहीं हैं यार की शमशीर में किश्त-ए-वहशत पर अगर बरसाए वो आब-ए-करम कोपलें फूटें अभी हर दाना-ए-ज़ंजीर में एक दिन के दर्द-ए-फ़ुर्क़त ने ये नक़्शा कर दिया हो गई बेगानगी मुझ में मिरी तस्वीर में देखिए क़िस्मत की ख़ूबी कुछ पढ़ा जाता नहीं उस ने नामा भी जो लिक्खा तो ख़त-ए-तक़्दीर में आरज़ू है 'बज़्म' की ख़ालिक़ वो दिन लाए कहीं मर्सिया जा कर पढ़ूँ मैं रौज़ा-ए-शब्बीर में