उम्र गुज़री कि तुझे हम ने भुला रक्खा है अपने हर जानने वाले को बता रक्खा है न सही वस्ल कोई जिस्म तो हो पहलू में मुझ को तन्हाई ने दीवाना बना रक्खा है हैं नशे के सभी सामान मिरे कमरे में और एक ताक़ पे ज़ाहिद का ख़ुदा रक्खा है कुल मिला कर कोई चौबीस हैं ग़म उल्फ़त के इन में इक ग़म है जिसे सब से जुदा रक्खा है जिस की लौ देख के भटके हुए आ जाते थे कुछ दिनों से वो दिया हम ने बुझा रक्खा है ज़िंदगी का मिरी हर बाब अयाँ दुनिया पर मैं ने इस तरह हर इक ऐब छुपा रक्खा है