उम्र-भर इश्क़ किसी तौर न कम हो आमीन दिल को हर रोज़ अता ने'मत-ए-ग़म हो आमीन मेरे कासे को है बस चार ही सिक्कों की तलब इश्क़ हो वक़्त हो काग़ज़ हो क़लम हो आमीन हुजरा-ए-ज़ात में या महफ़िल-ए-याराँ में रहूँ फ़िक्र दुनिया की मुझे हो भी तो कम हो आमीन जब मैं ख़ामोश रहूँ रौनक़-ए-महफ़िल ठहरूँ और जब बात करूँ बात में दम हो आमीन लोग चाहें भी तो हम को न जुदा कर पाएँ यूँ मिरी ज़ात तिरी ज़ात में ज़म हो आमीन इश्क़ में डूब के जो कुछ भी लिखूँ काग़ज़ पर ख़ुद-बख़ुद लौह-ए-ज़माना पे रक़म हो आमीन न डरा पाए मुझे तीरगी-ए-दश्त-ए-फ़िराक़ हर तरफ़ रौशनी-ए-दीदा-ए-नम हो आमीन 'मीर' के सदक़े मिरे हर्फ़ को दरवेशी मिले दूर मुझ से हवस-ए-दाम-ओ-दिरम हो आमीन मेरे कानों ने सुना है तिरे बारे में बहुत मेरी आँखों पे भी थोड़ा सा करम हो आमीन जब ज़मीं आख़िरी हिद्दत से पिघलने लग जाए इश्क़ की छाँव मिरे सर को बहम हो आमीन