उम्र-भर जुस्तुजू रहेगी क्या आरज़ू आरज़ू रहेगी क्या नहीं होना मुकालिमा तुझ से ख़ुद से ही गुफ़्तुगू रहेगी क्या रात ऐ रात सिर्फ़ रात की रात मेरे पहलू में तू रहेगी क्या शोर-ए-ख़ामोशी कम नहीं होना रात-भर हाव-हू रहेगी क्या तू जो मेरे गले भी लग जाए रूह से रूह छू रहेगी क्या ख़ुद को कमरे से गर निकाल दूँ मैं कोई शय फ़ालतू रहेगी क्या यूँ भी तज़लील कर के औरों की ख़ुद तिरी आबरू रहेगी क्या तो दोबारा सहर नहीं होनी तीरगी चार-सू रहेगी क्या ऐसी रेतीली ज़मीन में 'साहिर' मुझ को ताब-ए-नुमू रहेगी क्या