उन के जौर-ओ-जफ़ा उन के ज़ुल्म-ओ-सितम सारे आलम में मारूफ़-ओ-मशहूर हैं क्या करें दिल मगर मानता ही नहीं दिल के हाथों बड़े हम तो मजबूर हैं वाह वाह शैख़ जी आप भी ख़ूब हैं इतने तड़के चले आ गए हैं यहाँ रात पी ली थी हम ने बहुत तेज़-तर क्या मिलें क्या कहें अब तो मा'ज़ूर हैं क्या वो आए भी थे क्या चले भी गए क्या सबब है कि हिलती है ज़ंजीर भी हो गई है सहर पर नहीं है ख़बर कब चढ़ा था नशा कब से मख़मूर हैं बोला जा के कोई वो जो हैं बे-ख़ता जिन को कहते हैं सब 'आजिज़'-ए-बेवफ़ा हैं वही ज़ेब-ए-संग-ए-दर-ए-आस्ताँ जम के बैठे हैं और शाद-ओ-मसरूर हैं