उन को बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें बेकार जाएँ अपनी दुआएँ तो क्या करें इक ज़ोहरा-वश है आँख के पर्दों में जल्वागर नज़रों में आसमाँ न समाएँ तो क्या करें माना कि सब के सामने मिलने से है हिजाब लेकिन वो ख़्वाब में भी न आएँ तो क्या करें हम लाख क़समें खाएँ न मिलने की सब ग़लत वो दूर ही से दिल को लुभाएँ तो क्या करें बद-क़िस्मतों का याद न करने पे है ये हाल अल्लाह अगर वो याद ही आएँ तो क्या करें नासेह हमारी तौबा में कुछ शक नहीं मगर शाना हिलाएँ आ के घटाएँ तो क्या करें मय-ख़ाना दूर रास्ता तारीक हम मरीज़ मुँह फेर दें उधर जो हवाएँ तो क्या करें रातों के दिल में याद बसाएँ किसी की हम 'अख़्तर' हरम में वो न बुलाएँ तो क्या करें