उन को कहाँ है फ़िक्र किसी भी अज़ाब की क्यों बात कर रहे हो गुनाह-ओ-सवाब की दुनिया बनाई उस ने कुछ अपने हिसाब की तस्वीर खींच डाली हक़ीक़त की ख़्वाब की तन्क़ीद करते करते वो नक़्क़ाद बन गए अब आ गई है बारी ख़ुद उन के हिसाब की जाती हुई बहार के मंज़र को देख कर उन को पड़ी है फ़िक्र अब अपने शबाब की आसूदगी मज़े से सुलाती है रात भर महरूमियाँ क़बाएँ बनाती हैं ख़्वाब की जो लोग ख़ुद-फ़रेबी में रहते हैं मुब्तला उन की नज़र में क़दर कहाँ आफ़्ताब की 'शमशाद' को हक़ीक़त-ए-किरदार का है इल्म हाजत उसे कहाँ है किसी भी निसाब की