उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है ये भी सौ बात में इक बात चली जाती है वही बे-मेहरी-ए-दुनिया की शिकायत है जो थी वही बे-कैफ़ी-ए-हालात चली जाती है दिल से किस तरह हटे साया-ए-वहशत की अभी इन निगाहों की करामात चली जाती है मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी पे वो हँस देते हैं यूँ भी इक तर्ज़-ए-मुदारात चली जाती है जब से इस बज़्म का दस्तूर बनी मोहर-लबी रस्म-ए-ईहाम-ओ-इशारात चली जाती है नाम मरने पे भी है उन के वफ़ादारों में काम रुक जाए मगर बात चली जाती है होता आया है ग़म-ए-ज़ीस्त इबारत उन से गर्मी-ए-बज़्म-ए-ख़यालात चली जाती है आह भर लीजिए रो लीजिए कह लीजिए शे'र वो गिराँ-बारी-ए-जज़्बात चली जाती है हम कहाँ बज़्म-ए-गह-ए-नाज़ कहाँ फिर ये ग़ज़ल अर्ज़-ए-अहवाल-ओ-शिकायात चली जाती है