उन्हें आदत हमें लज़्ज़त सितम की उधर शमशीर इधर तक़दीर चमकी कहूँ क्या दर्द-ए-दिल कब से बढ़ा है निगाह-ए-लुत्फ़ तुम ने जब से कम की क़दम चूमेंगे तेरे हो के पामाल चलेंगे चाल हम नक़्श-ए-क़दम की यहाँ तक उन के वा'दे झूट निकले क़सम को भी हुई हाजत क़सम की वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बू बिखरी हुई थी खुली चोरी नसीम-ए-सुब्ह-दम की यहाँ तक उन को पास-ए-राज़-ए-ख़त था कि ख़ामे की ज़बाँ पहले क़लम की ज़मीं पर इस अदा से पाँव रक्खा कि आँखें खुल गईं नक़्श-ए-क़दम की कहाँ पीरी में वो रौशन-बयानी ज़बाँ तो है चराग़-ए-सुब्ह-दम की कहाँ हम और कहाँ बख़्शिश हमारी 'जलील' इक मौज भी अब्र-ए-करम की