उन्हीं की शह से उन्हें मात करता रहता हूँ सितमगरों की मुदारात करता रहता हूँ यहाँ कोई नहीं सुनता हदीस-ए-दिल-ज़दगाँ मगर मैं और तरह बात करता रहता हूँ भला ये उम्र कोई कारोबार-ए-शौक़ की है बस इक तलाफ़ी-ए-माफ़ात करता रहता हूँ ये काएनात मिरे बाल-ओ-पर के बस की नहीं तो क्या करूँ सफ़र-ए-ज़ात करता रहता हूँ यहीं पे वार-ए-हरीफ़ाँ उठाना पड़ता है यहीं हिसाब-ए-मुसावात करता रहता हूँ अजब नहीं किसी कोशिश में कामराँ हो जाऊँ मोहब्बतों की शुरूआत करता रहता हूँ हमेशा कासा-ए-ख़ाली छलकता रहता है फ़क़ीर हूँ सो करामात करता रहता हूँ