क्या इश्क़ था जो बाइस-ए-रुस्वाई बन गया यारो तमाम शहर तमाशाई बन गया बिन माँगे मिल गए मिरी आँखों को रतजगे मैं जब से एक चाँद का शैदाई बन गया देखा जो उस का दस्त-ए-हिनाई क़रीब से एहसास गूँजती हुई शहनाई बन गया बरहम हुआ था मेरी किसी बात पर कोई वो हादिसा ही वजह-ए-शनासाई बन गया पाया न जब किसी में भी आवारगी का शौक़ सहरा सिमट के गोशा-ए-तन्हाई बन गया था बे-क़रार वो मिरे आने से पेश-तर देखा मुझे तो पैकर-ए-दानाई बन गया करता रहा जो रोज़ मुझे उस से बद-गुमाँ वो शख़्स भी अब उस का तमन्नाई बन गया वो तेरी भी तो पहली मोहब्बत न थी 'क़तील' फिर क्या हुआ अगर कोई हरजाई बन गया