यूरिश-ए-ग़म से दिल-ओ-जाँ को बचाऊँ कैसे सो रही है मिरी तक़दीर जगाऊँ कैसे अक़्ल कुछ कहती है और दिल के तक़ाज़े हैं कुछ और आईना मुझ से जो कहता है बताऊँ कैसे अश्क तो पी लिए नामूस-ए-वफ़ा की ख़ातिर ग़म जो चेहरे से झलकता है छुपाऊँ कैसे दिल ही जब मुझ से बग़ावत पे कमर-बस्ता हो उस के हाथों में हो आँचल तो छुड़ाऊँ कैसे है उधर उस की मोहब्बत तो इधर मजबूरी दिल के आँगन की ये दीवार गिराऊँ कैसे बज़्म में छेड़ती रहती हैं किसी की नज़रें दिल मचल जाए जो ऐसे में मनाऊँ कैसे क़हक़हों ने ही भरम रक्खा है अब तक मेरा हो के संजीदा 'वफ़ा' अश्क छुपाऊँ कैसे