उस बुत से मिल कर इस दिल-ए-नादाँ को क्या हुआ क्यूँ आह-ओ-ज़ारी है लब-ए-ख़ंदाँ को क्या हुआ दीवाने अपना चाक-ए-गरेबाँ तो सी चुके अब तक न आई फ़स्ल-ए-बहाराँ को क्या हुआ दोनों-जहाँ हैं मुंतज़िर-ए-रोज़-ए-हश्र फिर उस शोख़ चश्म-ए--फ़ितना-ए-दौराँ को क्या हुआ फूलों में कोई बू है न कलियों में ताज़गी ऐ अंदलीब रंग-ए-गुलिस्ताँ को क्या हुआ दिल में वही ख़लिश है वही इज़्तिराब है चारागरों के दा'वा-ए-दरमाँ को क्या हुआ दिल पूछता है आज भी वो रश्क-ए-नौ-बहार आया न उस के वा'दा-ओ-पैमाँ को क्या हुआ करते हो आज कुफ़्र की बातें जगह जगह 'आफ़त' तुम्हारे दीन को ईमाँ को क्या हुआ