उस का कमाल है कि ख़िज़ाँ पर बहार है हद्द-ए-नज़र तलक जो तिलिस्मी हिसार है आगे भी सुब्ह तक नहीं रौशन कोई सुराग़ पीछे भी दूर दूर ये तारीक ग़ार है झोंके कहीं से आते हैं ताज़ा हवाओं के कुंज-ए-क़फ़स कहीं कोई राह-ए-फ़रार है इन आबलों को पाँव से निस्बत है दाइमी आगे यही सफ़र है यही ख़ारज़ार है था इक शजर बुलंद जो आँधी में गिर गया बस्ती तमाम उस के लिए सोगवार है 'बेताब' तुम फ़क़ीर कहाँ आ गए मियाँ इस शहर में इक एक बशर शहर-ए-यार है