उस के गुलाबी होंट तो रस में बसे लगे लेकिन बदन के ज़ाइक़े बे-कैफ़ से लगे टूटे क़दम क़दम पे जो अपनी लचक के साथ वो दलदलों में ज़ात की मुझ को फँसे लगे तमसील बन गए हैं समुंदर की झाग की सहरा-ए-ग़म की राख में जो भी धँसे लगे जिन का यक़ीन राह-ए-सुकूँ की असास है वो भी गुमान-ए-दश्त में मुझ को फँसे लगे हम ले के बे-अमानी को जंगल में आ गए दिल को जो शहर-ए-ख़ूबाँ में कुछ वसवसे लगे