काश होती न ये ख़ता हम से क्यूँ हुई अर्ज़-ए-मुद्दआ हम से इक तिरी याद का सहारा था वो भी अब हो गई जुदा हम से उम्र गुज़री मनाने में उन के वो ख़फ़ा से रहे सदा हम से टूट कर ही रहा दिल-ए-नादाँ कोई चारा न हो सका हम से मंज़िल-ए-शौक़ मिल चुकी उन को मिल गए जिन को रहनुमा हम से फूल तोड़े हैं आप ने लेकिन ख़ार उलझे हैं बारहा हम से जान-ए-आलम तुझे 'हज़ीं' की क़सम अब न होना कभी ख़फ़ा हम से