उस के कूचे से जो उठ अहल-ए-वफ़ा जाते हैं ता-नज़र काम करे रू-ब-क़फ़ा जाते हैं मुत्तसिल रोते ही रहिए तो बुझे आतिश-ए-दिल एक दो आँसू तो और आग लगा जाते हैं वक़्त-ए-ख़ुश उन का जो हम-बज़्म हैं तेरे हम तो दर-ओ-दीवार को अहवाल सुना जाते हैं जाएगी ताक़त-ए-पा आह तू करीएगा क्या अब तो हम हाल कभू तुम को दिखा जाते हैं एक बीमार-ए-जुदाई हूँ मैं आफी तिस पर पूछने वाले जुदा जान को खा जाते हैं ग़ैर की तेग़-ए-ज़बाँ से तिरी मज्लिस में तो हम आ के रोज़ एक नया ज़ख़्म उठा जाते हैं अर्ज़-ए-वहशत न दिया कर तो बगूले इतनी अपनी वादी पे कभू यार भी आ जाते हैं 'मीर' साहब भी तिरे कूचे में शब आते हैं लेक जैसे दरयूज़ा-गरी करने गदा जाते हैं