वहशत थी हमें भी वही घर-बार से अब तक सर मारे हैं अपने दर ओ दीवार से अब तक मरते ही सुना उन को जिन्हें दिल-लगी कुछ थी अच्छा हुआ कोई इस आज़ार से अब तक जब से लगी हैं आँखें खुली राह तके हैं सोए नहीं साथ उस के कभू प्यार से अब तक आया था कभू यार सो मामूल हम उस के बिस्तर पे गिरे रहते हैं बीमार से अब तक बद-अहदियों में वक़्त-ए-वफ़ात आन भी पहुँचा वादा न हुआ एक वफ़ा यार से अब तक है क़हर ओ ग़ज़ब देख तरफ़ कुश्ते के ज़ालिम करता है इशारत भी तू तलवार से अब तक कुछ रंज-ए-दिली 'मीर' जवानी में खिंचा था ज़र्दी नहीं जाती मिरे रुख़्सार से अब तक