उस के निभने के कुछ नहीं अस्बाब वो तग़ाफ़ुल-शिआर मैं बे-ताब वाजिब-उल-क़त्ल है दिल-ए-बेताब कुश्ता होना ही ख़ूब है सीमाब अब्र की तीरगी में हम को तो सूझता कुछ नहीं सिवाए शराब अपनी कश्ती का है ख़ुदा-हाफ़िज़ पीछे तूफ़ाँ है सामने गिर्दाब बोसा माँगा तो ये जवाब मिला सीखिए पहले इश्क़ के आदाब उस को फिरता है ढूँढता हर-सू क्यूँ कर आँखों से उड़ न जाए ख़्वाब दर्द-ए-उल्फ़त जो होते ही मरते ये अज़िय्यत न खींचते अहबाब नहीं मुमकिन कि जम्अ' हों दोनों साक़ी-ए-मेहर-वश शब-ए-महताब सामने उस के जो ठहर जाएँ नहीं बे-ताबियों को इतनी ताब अहल-ए-आलम से चाहता हूँ वफ़ा उस का तालिब हूँ जो कि है नायाब इश्क़ के साथ ही गए दिल-ओ-दीं आ गई सैल बह गया अस्बाब साफ़ फ़िक़रे हूँ और हमीं पर हों शेवा अच्छा तो है मिरा आदाब होती गर इस जहाँ में कुछ ख़ूबी कहते क्यूँ फिर सिफ़त में इस की ख़राब आज़माना न दिल को सख़्ती से टूट जाए न ये दुर-ए-नायाब किस तरह बहर-ए-इश्क़ से निकलूँ ये तो दरिया कहीं नहीं पायाब शो'ला-ए-हुस्न तेरा क्या कहना फूँक दे उस के पर्दा-हा-ए-हिजाब उस की शोख़ी का है तअ'ज्जुब क्या हुस्न ये कुछ और उस पे ऐन शबाब 'ग़ालिब' आए हैं लाओ ऐ 'मजरूह' बादा-ए-नाब में मिला के गुलाब