उस की धुन में हर तरफ़ भागा किया दौड़ा किया एक बूँद अमृत की ख़ातिर मैं समुंदर पी गया इक तरफ़ क़ानून है और इक तरफ़ इंसान है ख़त्म होता ही नहीं जुर्म-ओ-सज़ा का सिलसिला अव्वल-ओ-आख़िर के कुछ औराक़ मिलते ही नहीं है किताब-ए-ज़िंदगी बे-इब्तिदा बे-इंतिहा फूल में रंगत भी थी ख़ुशबू भी थी और हुस्न भी उस ने आवाज़ें तो दीं लेकिन कहाँ मैं सुन सका मैं तो छोटा हूँ झुका दूँगा कभी भी अपना सर सब बड़े ये तय तो कर लें कौन है सब से बड़ा जैसे अन-देखे उजाले की कोई दीवार हो बंद हो जाता है कुछ दूरी पे हर इक रास्ता हुस्न-ओ-उलफ़त दोनों हैं अब एक सत्ह पर मगर आइना-दर-आइना बस आइना-दर-आइना जब न मुझ से बन सकी उस तक रसाई की सबील एक दिन मैं ख़ुद ही अपने रास्ते से हट गया ज़िंदाबाद ऐ दिल मिरे मैं भी हूँ तुझ से मुत्तफ़िक़ प्यार सच्चा है तो फिर कैसी वफ़ा कैसी जफ़ा हाँ मगर तस्दीक़ में उम्रें गुज़र जाती हैं 'नूर' कुछ न कुछ रहता है सब को अपनी मंज़िल का पता