उस को पा जाऊँ कभी ऐसा मुक़द्दर है कहाँ और उठा लूँ उस से दिल ये ज़ोर दिल पर है कहाँ घुट के रह जाए न सर ही में कहीं ज़ौक़-ए-सुजूद मैं तो सर हर दर पे रख दूँ पर कोई दर है कहाँ नग़्मा-रेज़ी साज़ की बाज़ीगरी मुतरिब की है नग़्मा कोई बे-नवा तारों के अंदर है कहाँ उस के होंटों से झलकती है मिरी लब-तिश्नगी खिंच रही है मय कहाँ पर और साग़र है कहाँ मैं वहाँ रहता हूँ गुंजाइश जहाँ मेरी नहीं क्या कहूँ किस घर में रहता हूँ मिरा घर है कहाँ ख़ुद को देखा है जब उन आँखों में झाँका है 'मुहिब' मुझ को इतना क़ुर्ब ख़ुद से भी मयस्सर है कहाँ