उस पर तुम्हारे प्यार का इल्ज़ाम भी तो है अच्छा सही 'क़तील' प बदनाम भी तो है आँखें हर इक हसीन की बे-फ़ैज़ तो नहीं कुछ सागरों में बादा-ए-गुलफ़ाम भी तो है पलकों पे अब नहीं है वो पहला सा बार-ए-ग़म रोने के बा'द कुछ हमें आराम भी तो है आख़िर बुरी है क्या दिल-ए-नाकाम की ख़लिश साथ उस के एक लज़्ज़त-ए-बे-नाम भी तो है कर तो लिया है क़स्द इबादत की रात का रस्ते में झूमती हुई इक शाम भी तो है हम जानते हैं जिस को किसी और नाम से इक नाम उस का गर्दिश-ए-अय्याम भी तो है ए तिश्ना-काम-ए-शौक़ इसे आज़मा के देख वो आँख सिर्फ़ आँख नहीं जाम भी तो है मुंकिर नहीं कोई भी वफ़ा का मगर 'क़तील' दुनिया के सामने मिरा अंजाम भी तो है