उस से बातों में न उलझा कीजिए क्यों किसी आफ़त का सौदा कीजिए दफ़्न हैं सच्चाइयाँ चारों तरफ़ आप ख़ामोशी से निकला कीजिए गुज़रे लम्हों से भी मिलता है सबक़ याद-ए-माज़ी को टटोला कीजिए कितना गहरा है समुंदर देखिए और फिर दामन भिगोया कीजिए जो गुनाह के रास्तों पर चल पड़े उस को राह-ए-हक़ दिखाया कीजिए है तिरे महबूब की मेहंदी का रंग इस को आँखों से लगाया कीजिए कर के चेहरे पर रक़म सच्चाइयाँ आइना फिर आप देखा कीजिए रोज़ मिल कर भी नहीं पहचानते आश्नाई का न दा'वा कीजिए लब पे हो शुक्र-ए-ख़ुदा हर हाल में ज़िंदगी को यूँ गुज़ारा कीजिए आप से जो टूट कर मिलता न हो उस से मिलने की तमन्ना कीजिए गुनगुना कर आप ये मेरी ग़ज़ल एक शाइ'र को न रुस्वा कीजिए ख़ौफ़ है जो तुंद झोंकों का 'सईद' मत चराग़ों को जलाया कीजिए