उसे बेताब हो कर सोचती हूँ मैं इक गुलफ़ाम अक्सर सोचती हूँ हुई हाइल कुछ ऐसी बद-गुमानी मैं इक हीरे को पत्थर सोचती हूँ वो इक लम्हा जो बीता कल है मेरा मैं हर लम्हा वो मंज़र सोचती हूँ हूँ जिस की ज़ात से वाबस्ता कब से अब उस को अपना मेहवर सोचती हूँ मिरी डोली जहाँ से सज के निकली मैं बाबुल का वही घर सोचती हूँ ये हाव-हू बदन के घाव पर है मगर मैं दिल के नश्तर सोचती हूँ तुम्हारी याद के बादल जो आए तो बन कर बाद-ए-सर-सर सोचती हूँ 'सबीला' क्या कहूँ मंज़िल कहाँ है ख़ुदा वाक़िफ़ है जो दर सोचती हूँ