उसे छूते हुए भी डर रहा था वो मेरा पहला पहला तजरबा था अगरचे दुख हमारे मुश्तरक थे मगर जो दो दिलों में फ़ासला था कभी इक दूसरे पर खुल न पाए हमारे दरमियाँ इक तीसरा था वो इक दिन जाने किस को याद कर के मिरे सीने से लग के रो पड़ा था उसे भी प्यार था इक अजनबी से मिरे भी ध्यान में इक दूसरा था बिछड़ते वक़्त उस को फ़िक्र क्यूँ थी बसर करनी तो मेरा मसअला था वो जब समझा मुझे उस वक़्त 'अंजुम' मिरा मेआर ही बदला हुआ था