उसे ग़ुरूर बहुत अब है पारसाई का कोई तो हो के जो दावा करे ख़ुदाई का उसे ये रंज कि उस का कहा नहीं माना मुझे मलाल हुआ अपनी ना-रसाई का तू वक़्त रहते मुझे क्यों सदा नहीं देता कभी तो लुत्फ़ उठा मेरी हम-नवाई का क़फ़स बदन का जो इक आन में इधर टूटा तो रूह जश्न मनाने लगी रिहाई का उसे भी अपने कई दोस्त मिल गए 'अमृत' तुझे भी वक़्त मिला ख़ुद से आश्नाई का