उसे तब देखते शादाब था जब वो सहरा हर तरफ़ ख़ुश-ख़्वाब था जब खड़े ख़ुश-फ़े'लियाँ करते थे बगुले नदी में घुटने घुटने आब था जब उमीदी सीपियाँ इरफ़ान सी थीं समुंदर फ़िक्र का पायाब था जब चमकती ख़ुशबुएँ थीं मछलियों की जज़ीरा ख़्वाब का दशताब था जब क़दम ख़ुद से बढ़ाते थे न रस्ते बरसता चार सू कोहराब था जब सभी चेहरे उजाला सोचते थे हमारी आँखों पे नक़्शाब था जब थीं हम-ता'बीर 'रहमानी' की बाहें बदन हम-ख़्वाब का कमख़ाब था जब