सफ़र भी दूर का है राह आश्ना भी हैं चला उधर को हूँ जिस सम्त की हवा भी नहीं गुज़र रहा हूँ क़दम रख के अपनी आँखों पर गए दिनों की तरफ़ मुड़ के देखता भी नहीं मिरा वजूद मिरी ज़िंदगी की हद न सही कभी जो तय ही न हो मैं वो फ़ासला भी नहीं फ़ज़ा में फैल चली मेरी बात की ख़ुश्बू अभी तो मैं ने हवाओं से कुछ कहा भी नहीं समझ रहा हूँ 'मुज़फ़्फ़र' उसे शरीक-ए-सफ़र जो मेरे साथ क़दम दो क़दम चला भी नहीं