उसे तो पास-ए-ख़ुलूस-ए-वफ़ा ज़रा भी नहीं मगर ये आस का रिश्ता कि टूटता भी नहीं घिरे हुए हैं ख़मोशी की बर्फ़ में कब से किसी के पास कोई तेशा-ए-सदा भी नहीं मआल-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल है मिरी निगाहों में मुझे तबस्सुम-ए-काज़िब का हौसला भी नहीं तुलू-ए-सुब्ह-ए-अज़ल से मैं ढूँढता था जिसे मिला तो है प मिरी सम्त देखता भी नहीं मिरी सदा से भी रफ़्तार तेज़ थी उस की मुझे गिला भी नहीं है जो वो रुका भी नहीं बिखर गई है निगाहों की रौशनी वर्ना नज़र न आए वो इतना तो फ़ासला भी नहीं सुना है आज का मौज़ू-ए-मज्लिस-ए-तन्क़ीद वो शे'र है कि अभी मैं ने जो कहा भी नहीं सिमट रहे हैं सितारों के फ़ासले 'अनवर' पड़ोसियों को मगर कोई जानता भी नहीं