उसे यक़ीन न आया मिरी कहानी पर वो नक़्श ढूँड रहा था गुज़रते पानी पर सफ़ीने थक के तह-ए-आब हो गए सारे हुनर खिला न हवाओं का बादबानी पर मैं सख़्त-जान था ऐसा कि चीख़ भी न सका फ़ुग़ाँ फ़ुग़ाँ थी जहाँ मर्ग-ए-ना-गहानी पर मैं आसमाँ को समझता रहा हरीफ़ अपना गया न ध्यान कभी उस की बे-करानी पर 'मुजीबी' चुप सी ये क्यूँ लग गई ज़माने को कहाँ गए वो जो नाज़ाँ थे ख़ुश-बयानी पर