जहाँ में रह के भी हम कब जहाँ में रहते हैं मकाँ को छोड़ चुके हैं ज़माँ में रहते हैं तिरे ख़याल में अपना गुज़र नहीं होता जो दिल से गिर गए वहम-ओ-गुमाँ में रहते हैं छटे ग़ुबार तो नाम-ओ-निशाँ हमारा मिले कि हम तो गर्द-ए-पस-ए-कारवाँ में रहते हैं जो ख़ार हैं वो खटकते हैं चश्म-ए-आ'दा में जो फूल हैं वो दिल-ए-दोस्ताँ में रहते हैं शगुफ़्त-ए-जाँ के लिए खींच रंज-ए-महरूमी बहार के सभी मौसम ख़िज़ाँ में रहते हैं नहीं जो वो तो दर-ओ-बाम की फ़ज़ा से मिलो मकीं के रंग-ए-तबीअ'त मकाँ में रहते हैं हम अपनी आग को पानी में ढालने के लिए तिलिस्म-कारी-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ में रहते हैं उरूज-ए-इश्क़ ये देखा कि तेरे दीवाने ज़मीं पे चलते हैं और आसमाँ में रहते हैं किताब-ए-हाल में 'बाक़र' को ढूँडते हो अबस सुना है दिल की किसी दास्ताँ में रहते हैं