उसी ख़ुश-नवा में हैं सब हुनर मुझे पहले था न क़यास भी उसी ख़ुश-नवा पे सजा है क्या मिरी शाइ'री का लिबास भी वो ग़ज़ल का रूप लिए हुए मुझे हर मक़ाम पे ले गया कभी दश्त-ए-यार के दरमियाँ कभी शहर-ए-फ़िक्र के पास भी जिसे इतना औज-ए-नज़र मिला उसे क्यूँ न दर्द-ए-ज़मीं मिले किसी फ़लसफ़े का नुज़ूल है तिरे लब पे कलमा-ए-यास भी कोई जैसे नोक-ए-सिनाँ लिए शब-ओ-रोज़ सर पे खड़ा रहा है अज़िय्यतों के शुमार में ये अज़िय्यतों का हिरास भी रुख़-ए-दाग़-ए-दल के सिवा 'हसन' मैं नवा-ए-बे-दिल-ओ-शाद हूँ इन्ही आशिक़ों का है रंग भी उन्ही कामिलों का है बास भी