उस को जब याद नहीं बैठ के रो लेते हैं आ शब-ए-हिज्र कहीं बैठ के रो लेते हैं हिज्र की लम्बी मसाफ़त से अभी लौटे हो पाँव शल हैं तो यहीं बैठ के रो लेते हैं फिर से जी उठता हूँ जब मेरी अज़ा-दारी को आसमाँ और ज़मीं बैठ के रो लेते हैं थाम कर मुझ से कहा फ़ाक़ा-ज़दा हाथों ने घर में बच्चे हैं यहीं बैठ के रो लेते हैं झोंपड़ी अपने लिए तख़्त-ए-सुलैमानी है दर्द हैं तख़्त-नशीं बैठ के रो लेते हैं हर जगह रोने के आदाब 'नसीर' अपने हैं गाँव है शहर नहीं बैठ के रो लेते हैं