वो शख़्स मुझे जब से दिखाई नहीं देता आँखें हैं मगर कुछ भी सुझाई नहीं देता ख़ैरात में दे देते हैं रहगीर को जितनी उतनी भी मोहब्बत मुझे भाई नहीं देता इन चीख़ती चिल्लाती हुई गलियों का मातम दानिस्ता हवेली को सुनाई नहीं देता इक अर्सा हुआ दिल से मिरी बनती नहीं है दिल मुझ को कि मैं दिल को सुनाई नहीं देता सीने में कभी हश्र उठा रक्खा था दिल ने अब शोर-ए-क़यामत भी सुनाई नहीं देता इस दिल को बना रक्खा है किस मिट्टी से या-रब जो जब्र भी सहता है दुहाई नहीं देता