उतर के धूप जब आएगी शब के ज़ीने से उड़ेगी ख़ून की ख़ुशबू मिरे पसीने से मैं वो ग़रीब कि हूँ चंद बे-सदा अल्फ़ाज़ अदा हुई न कोई बात भी क़रीने से गुज़िश्ता रात बहुत झूम के घटा बरसी मगर वो आग जो लिपटी हुई है सीने से लहू का चीख़ता दरिया ध्यान में रखना किसी की प्यास बुझी है न ओस पीने से वो साँप जिस को बहुत दूर दफ़्न कर आए पलट न आए कहीं वक़्त के दफ़ीने से दिलों को मौज-ए-बला रास आ गई शायद रही न कोई शिकायत किसी सफ़ीने से वजूद शोला-ए-सय्याल हो गया है 'शमीम' उठी है आँच अजब दिल के आबगीने से