उठ कर चले हैं आज तिरे आस्ताँ से हम बेज़ार अब हैं बंदगी-ए-राएगाँ से हम ऐ दिल हर एक बात में बे-रब्तियाँ हैं क्यों कुछ मुतमइन नहीं हैं तिरी दास्ताँ से हम मायूस-कुन है मंज़िल-ए-इश्क़-ए-बुताँ का शौक़ आ पहुँचे फिर वहीं कि चले थे जहाँ से हम दिल को तो उन के लुत्फ़-ओ-करम ने मिटा दिया बे-फ़ाएदा उलझते रहे आसमाँ से हम अपनी निगाह-ए-शौक़ भी अब तक है बे-ख़बर ऐ हुस्न ढूँड कर तुझे लाएँ कहाँ से हम बे-कैफ़ था फ़साना-ए-उल्फ़त मगर उसे चमका गए हैं शोख़ी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ से हम नाकामियों ने घेर लिया दम पे बन गई सब कुछ हुआ मगर न दबे आसमाँ से हम दुश्मन भी देख कर हमें होता है अश्क-रेज़ ये फ़ैज़ पा रहे हैं किसी मेहरबाँ से हम 'साहिर' क़फ़स में हम को ये अज़्मत हुई नसीब बाला हैं इम्तियाज़-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ से हम